रविवार, 31 जुलाई 2011

कहीं भी जाओ..........

कहीं भी जाओ , सदाएँ तलाश लेती  हैं
"फकीर मन को" , दुआएँ तलाश लेती हैं .

ये ऐसा जख्म कि,इसके लिए न रोए कोई
"दिलों के दर्द" ,         दवाएँ तलाश लेती हैं .

नज़र के सामने कर लें या छुप-छुपा के कहीं
"मेरा गुनाह"              सजाएँ तलाश लेती हैं .

सही के  फर्द-बयाँ को दबा के क्या हासिल
"दबी जुबाँ " को      कथाएँ तलाश लेती हैं.

मैं अपना नाम किसी से कहूँ ,कहूँ न कहूँ
मेरा वजूद ,           हवाएँ तलाश लेती हैं .
            
                        .........पवन श्रीवास्तव


मंगलवार, 26 जुलाई 2011

बेचैनी के रक्त-बीज

मैं !
अगर कवि होता ?
तो,
कभी दीवार में सिर नहीं मारता !
नहीं बहता खून , मेरे सिर से
खून की नदी में ,सिर बहते |

मेरे अंतस के उज्बुजाते शब्द !
छछनते छंद !                                                                             
चीर कर निकलते ...
कलम का सतवांस  गर्भ.
बेमेल वर्जनाओं के चटकते टाँकों की प्रतिध्वनि से
झनझना उठते तुम्हारे कान के परदे ...

कितना बड़ा अपशकुन हो जाता ?
कि.......,
मेरी पुतलियों से निकलता ,आग ताप कर सूरज .
मेघ ! उमड़ते,! घुमड़ते,! तड़कते !!
और,......
मेरी गर्म साँसे ?
किसी धधकती ज्वाला-मुखी में तब्दील हो जातीं .

मेरी दमित इच्छाओं कि ऊष्मा से ...
सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता ...!
सिंघासन कि शोभा !
उतार लाते ,भूमि-पुत्र ,,.
लोग ! जूतों समेत ,धड-धडाते हुए.....
भगवान् के घर में ..घुस जाते.

बंद हो जाता उनका कारोबार ...!
जो, खुद ठंढ से बचने के लिए ,
हमारी पीठ पर ,,ऊन की फसल काटते हैं
और लौट कर ,हमारी ही बस्ती में
गर्म उतरनों की खैरात बाँटते हैं ...|

आखिर !, कब तक चलता यह सिलसिला .......
कि  !......
कभी असंख्य वाणों से बिंधा खरगोश ,कहीं से हाँफता हुआ आता 
समा जाता मेरे भीतर ........
दम तोडतीं अनंत प्यासी नदियाँ ......
तैर -तैर जातीं मेरी शिराओं में ...
आखिर कब तक ......?
कभी ब्रम्हास्त्रों के प्रयोग कि आशंका से सहमी  सभ्यता के ,
विकलाँग भ्रूणों कि सिसकियाँ..,
कभी ,दम तोडती पागल परिभाषाओं का नग्न प्रलाप...
तो ! कभी अपनी जड़ों कि तलाश में भटकते
लाजवंती -वणों का क्रौच-विलाप !......
ऊ...फ ...!
बेचैन हो जाता मैं ..!...बेहाल हो जाता मैं ..!
दरक जाता मर्यादा का बाँध ...
कागजी -कंक्रीट क़ी नींव पर इतरातीं आचार-संहिताओं के गगन -चुम्बी ताश-महल !
भर -भरा  कर ,ढहते !
और.........!
मेरे माथे से टपकते ,बेचैनी के रक्त-बीज !
बन - बना कर उगते ....
ढाँप देते ,धरती का उघड़ता बदन ....!
अगर मैं कवि होता ......
                                                              ................पवन श्रीवास्तव                  

शनिवार, 23 जुलाई 2011

कुछ भी मेरे पास नहीं है ................

कुछ भी मेरे पास नहीं है
कोई तजुर्बा खास नहीं  है

आपके इस अंदाजे-बयाँ में
बात तो है एहसास नहीं है

बैरागी बनने की   कोशिश
कोशिश है ,सन्यास नहीं है

एक ही घर में चुप-चुप रहना
साथ तो है ,सहवास   नहीं है

लेकर,लिखना,लिख कर देना                   
मुझको  ये   अभ्यास नहीं है   
                                          
                                    ......... पवन श्रीवास्तव 



शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता ............

मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता
ताजा -तरीन ,सर्वथा नवीन
जो,गांडीव की टंकार-ध्वनि की सवारी कसे
और संपूर्ण मिथ्यांचल पर मारण-मंत्र की तरह           
मंडराती रहे ....
लेकिन , मैं यह भी जानता  हूँ
कि,मुझे प्रतीक्षा करनी होगी
तब तक
जब तक कि मेरे खुद के बोए                               
शब्द-बीज !
अंकुरित,पल्लवित ,पुष्पित
और फलित न हो जाएँ
                             ..............पवन श्रीवास्तव .

सोमवार, 18 जुलाई 2011

mausam ke mijaajon sa..............

मौसम के मिजाजों सा परिवेश बदल लेते हैं
मन रंग बदलता  है     हम वेश बदल लेते हैं |

बचपन के    रिश्तों को       कैसे कोई ढूंढें ?
हम,! उम्र बदलते हैं ,वो देश बदल लेते हैं |

हम में , उनमें यारों ,    इतना ही अंतर है
हम मूल बदलते हैं,  वो शेष  बदल लेते हैं |

संकेत की दुनिया में ,     कोई हेरा-फेरी है
वरना कैसे ये लोग   सन्देश बदल लेते हैं ?

मुझे कैद उम्र भर की,और तुमको सजा-ए-मौत
आओ ! मेरे भाई               आदेश बदल लेते हैं ||

                                                 ................ पवन श्रीवास्तव  

   

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

tapish itni.........

तपिश इतनी कि गल सकता है कोई 
किसी सांचे में  ढल सकता    है  कोई.

जहां         राहें फिसलती जा रही हों
वहां कब तक संभल सकता है कोई 

किसी पर भी यकीं होता नहीं है
बताशे से बहल सकता है कोई .

किसी काँधे पे कोई सर लगा कर
सरे- बाज़ार छल सकता है कोई.

अभी इन चुप्पियों को छेडिये मत
कि  छूते ही उबल सकता है कोई

ये मत समझो कि अब कुछ भी नहीं है
अंधेरों से निकल  सकता         है कोई

जरा रुक कर हवाओं को सदा दो
तुम्हारे साथ चल सकता है कोई

:"पवन" की आँच बढती जा रही है
अब उसके साथ जल सकता है कोई ||

                                              .........पवन श्रीवास्तव     

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

bhojpuri ghazal

कुछ न सोचनी कि, के ,केकर ,का ले गइल
ओहिजे गइनी         जहाँ  रास्ता ले गइल !!

केहू रोकल ना टोकल   त      पागल हवा
हमरा  सपना के सेनुर       उड़ा ले गइल  !!

हम करेजा में   जे कुछ        लुकवले रहीं  
केहू धीरे से    आ के         चोरा ले गइल  !!

एक पल  एक छिन  के      भुलौना सफ़र
रउया  देखनी    कहाँ से कहाँ     ले गइल !!

उ  त  बुरबक बना के   बुझा  ता   "पवन"    
तहरा धोकरी के  सौंसे   दुआ     ले गइल !!
                                                      ........पवन श्रीवास्तव 

बुधवार, 6 जुलाई 2011

भोजपुरी ग़ज़ल

सुन्दर के त्यागीं मत 
भोगीं      भागीं मत.

सपना   छितरा  जाई
चिहा के    जागीं मत

दाग त लागिए गइल
धोईं ,       रान्गीं मत
 
आँख  बन्दूक  ना   ह
देखीं        दागीं  मत

जिनिगी       रेशम ह
पेन्हीं        टाँगी मत  

केहू      कुछ दीही ना 
ले   लीं    मांगीं मत  
                           ........पवन श्रीवास्तव