रविवार, 13 फ़रवरी 2011

बहुरुपिया

मैं देख रहा हूँ......
मेरे भीतर तेज़ बवंडर उठ रहे हैं
कोई बहुरूपिया मेरी ग्रंथियों के चौराहे पर खड़ा
हांक लगा रहा है
मेरी रगों में आकाश की तरह बह रहा है
जाने किस-किस भाषा में क्या-क्या कह रहा है
मैं देख रहा हूँ......
मैं देख रहा हूँ
बहरूपिया,
कभी योगी, कभी कामी
कभी भिक्षु, कभी स्वामी
कभी औघड़, अवधूत, मुक्तिदूत-बागी का
रूप धर रहा है
जाने क्या-क्या कर रहा है
मैं देख रहा हूँ.....
मैं देख रहा हूँ
बहरूपिया अपने पूरे रौ में है
हवा में लहराते सन की तरह सफ़ेद
उसके केश, उसकी दाढ़ी
पलकों के पालने में जुड्वें सूर्य सी लेटीं
उसकी पुतलियाँ
दसों दिशाओं पर ध्वज की तरह फहरातीं
उसकी भुजाओं के शीर्ष पर थिरकतीं उसकी उँगलियाँ
ब्रह्मांड का भूगोल उकेर रहीं हैं
मैं देख रहा हूँ......
मैं देख रहा हूँ
हवाएं उठाकर ले भाग रही हैं
उसके शब्दों की डोली
जो कुछ मेरे हिस्से का बच रहा है
मैं चुन रहा हूँ.....
मैं सुन रहा हूँ
लम्बे समय से चुप्पी की ऊब सह रहा हूँ
अब कह रहा हूँ.....
अब कह रहा हूँ



2 टिप्‍पणियां:

  1. जात से कायनात तक का सफ़र करती इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई स्वीकार करें

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  2. अंतर्मन से मन तक को उद्वेलित करती कविता

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