गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

रचनाएं ! जो गाँव में रची गईं ...............!

                                                                         १...
ताड़ी कहे ताड़ से ,कि,मांग करो सरकार से
हमरो रेट बढे के चाहीं,फैसन के रफ़्तार से 

नाम बा हमरो नीसा में,हक बा हमरो हिसा में
सबसे ऊपर हम रहिला खिलल रहिला झिसा में
हम रहीं लबना -लबनी में, दारू बैठे सीसा में

लुक-छीप के मत पीअ मत पीअ लोटा में
फ्री सेल में न पिअब ता अब का पीअब कोटा में  
       (यह रचना तब जन्मी थी जब लालू जी ने ताड़ी पर से टैक्स हटा लिया था                                                                 ...रचनाकार अज्ञात

बुधवार, 23 नवंबर 2011

                                                                   कुंडली
                                                                 .............
नया जमाना आ गया ,मुक्त हुआ व्यापार,
व्यर्थ अर्थ के स्वार्थ का गर्म हुआ बाजार,
गर्म हुआ बाजार ,ये घर-घर घुसा हुआ है
अपना आदम-जात इसी में  फंसा हुआ है,
                     कह मूरख कविराय ,सुनो भारत के भाई ,
                     परमारथ   की गाय   हाँक ले गए कसाई !!
                                                                             .......पवन श्रीवास्तव

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

पाँव उठते हैं कि गिरते हैं ........

पाँव उठते हैं कि गिरते हैं,ये चलना तो नहीं 
चार,  दीवार उठा लेना ही ,  बसना तो नहीं 

उम्र भर भागते रहने से   भला क्या हासिल 
भागना ? भागना होता है , पहुंचना तो नहीं 

ये जो झुकता है मेरा सिर ,तो सिर नहीं हूँ मैं 
यूँ ,एह्तारामे-हकीक़त कोई झुकना तो नहीं 

मैंने लम्हों से सुलह  की है,     जमाने से नहीं  
मेरा छुपना ?मेरा बचना ? मेरा डरना तो नहीं  

तुम जो कहते हो उसे गौर से सुनता है "पवन "
पर ,महज गौर से सुनना ही समझना तो नहीं.
                                                                 ........पवन श्रीवास्तव 


मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

कल्पना

कल्पना !
अस्वीकार से जनमती है .
अस्वीकार !
ऊर्जा के ऊफान से निकलता है.
ऊर्जा और प्रज्ञा के व्याघात हैं विचार ..........
विचार !
कल्पना नहीं है .
कल्पनाएँ !
आदमी का साथ छोड़ने लगें
तो, प्रलय है.......
फिर महाप्रलय की कल्पना .
फिर नई सृष्टि की कल्पना.......
कल्पना !
तेरे बाँए अनंत अर्ध-विराम हैं.,,,,,,......
तेरे दाएँ कोई पूर्ण-विराम नहीं ...............

                                                     ......पवन श्रीवास्तव

सत्यम शिवम सुन्दरम

सत्य के ,
कटु,तिक्त और रस से रिक्त होने का बयान ?
किसी बाँझ की प्रसव-पीड़ा ,किसी क्लीव की काम-क्रीडा जैसा
अनूठा बयान है .
सरासर झूठा बयान है ....

ध्वनि-विस्तारक चोंगों से चीखतीं
हवाओं में गड्ड-मड्ड होतीं
कटु सच्चाइयाँ ?
झूठ की परछाइयाँ हैं ...
भ्रम-संध्याओं में छायाएं  !
अपनी काया से बड़ी हो गयीं हैं ....

कचकडे के क्लिपों से चपीं,
सूख-सूख कर ऐठ गयीं हैं
रस-श्रावी ग्रंथियां ...!.........इन्द्रियाँ...... ?
मुँह ढाँप कर सो गयीं हैं ..

सच और झूठ के इन कटु-मधु बयानों के संजाल से ..
तड़प भागे .आदमी के पीछे ....
हाथ धो कर पडी हैं ...........
आचार-संहिताओं   की    सशस्त्र सेनाएं .......!!!!!!!!!!!!!!
                                                       ........पवन श्रीवास्तव

रविवार, 31 जुलाई 2011

कहीं भी जाओ..........

कहीं भी जाओ , सदाएँ तलाश लेती  हैं
"फकीर मन को" , दुआएँ तलाश लेती हैं .

ये ऐसा जख्म कि,इसके लिए न रोए कोई
"दिलों के दर्द" ,         दवाएँ तलाश लेती हैं .

नज़र के सामने कर लें या छुप-छुपा के कहीं
"मेरा गुनाह"              सजाएँ तलाश लेती हैं .

सही के  फर्द-बयाँ को दबा के क्या हासिल
"दबी जुबाँ " को      कथाएँ तलाश लेती हैं.

मैं अपना नाम किसी से कहूँ ,कहूँ न कहूँ
मेरा वजूद ,           हवाएँ तलाश लेती हैं .
            
                        .........पवन श्रीवास्तव


मंगलवार, 26 जुलाई 2011

बेचैनी के रक्त-बीज

मैं !
अगर कवि होता ?
तो,
कभी दीवार में सिर नहीं मारता !
नहीं बहता खून , मेरे सिर से
खून की नदी में ,सिर बहते |

मेरे अंतस के उज्बुजाते शब्द !
छछनते छंद !                                                                             
चीर कर निकलते ...
कलम का सतवांस  गर्भ.
बेमेल वर्जनाओं के चटकते टाँकों की प्रतिध्वनि से
झनझना उठते तुम्हारे कान के परदे ...

कितना बड़ा अपशकुन हो जाता ?
कि.......,
मेरी पुतलियों से निकलता ,आग ताप कर सूरज .
मेघ ! उमड़ते,! घुमड़ते,! तड़कते !!
और,......
मेरी गर्म साँसे ?
किसी धधकती ज्वाला-मुखी में तब्दील हो जातीं .

मेरी दमित इच्छाओं कि ऊष्मा से ...
सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता ...!
सिंघासन कि शोभा !
उतार लाते ,भूमि-पुत्र ,,.
लोग ! जूतों समेत ,धड-धडाते हुए.....
भगवान् के घर में ..घुस जाते.

बंद हो जाता उनका कारोबार ...!
जो, खुद ठंढ से बचने के लिए ,
हमारी पीठ पर ,,ऊन की फसल काटते हैं
और लौट कर ,हमारी ही बस्ती में
गर्म उतरनों की खैरात बाँटते हैं ...|

आखिर !, कब तक चलता यह सिलसिला .......
कि  !......
कभी असंख्य वाणों से बिंधा खरगोश ,कहीं से हाँफता हुआ आता 
समा जाता मेरे भीतर ........
दम तोडतीं अनंत प्यासी नदियाँ ......
तैर -तैर जातीं मेरी शिराओं में ...
आखिर कब तक ......?
कभी ब्रम्हास्त्रों के प्रयोग कि आशंका से सहमी  सभ्यता के ,
विकलाँग भ्रूणों कि सिसकियाँ..,
कभी ,दम तोडती पागल परिभाषाओं का नग्न प्रलाप...
तो ! कभी अपनी जड़ों कि तलाश में भटकते
लाजवंती -वणों का क्रौच-विलाप !......
ऊ...फ ...!
बेचैन हो जाता मैं ..!...बेहाल हो जाता मैं ..!
दरक जाता मर्यादा का बाँध ...
कागजी -कंक्रीट क़ी नींव पर इतरातीं आचार-संहिताओं के गगन -चुम्बी ताश-महल !
भर -भरा  कर ,ढहते !
और.........!
मेरे माथे से टपकते ,बेचैनी के रक्त-बीज !
बन - बना कर उगते ....
ढाँप देते ,धरती का उघड़ता बदन ....!
अगर मैं कवि होता ......
                                                              ................पवन श्रीवास्तव                  

शनिवार, 23 जुलाई 2011

कुछ भी मेरे पास नहीं है ................

कुछ भी मेरे पास नहीं है
कोई तजुर्बा खास नहीं  है

आपके इस अंदाजे-बयाँ में
बात तो है एहसास नहीं है

बैरागी बनने की   कोशिश
कोशिश है ,सन्यास नहीं है

एक ही घर में चुप-चुप रहना
साथ तो है ,सहवास   नहीं है

लेकर,लिखना,लिख कर देना                   
मुझको  ये   अभ्यास नहीं है   
                                          
                                    ......... पवन श्रीवास्तव 



शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता ............

मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता
ताजा -तरीन ,सर्वथा नवीन
जो,गांडीव की टंकार-ध्वनि की सवारी कसे
और संपूर्ण मिथ्यांचल पर मारण-मंत्र की तरह           
मंडराती रहे ....
लेकिन , मैं यह भी जानता  हूँ
कि,मुझे प्रतीक्षा करनी होगी
तब तक
जब तक कि मेरे खुद के बोए                               
शब्द-बीज !
अंकुरित,पल्लवित ,पुष्पित
और फलित न हो जाएँ
                             ..............पवन श्रीवास्तव .

सोमवार, 18 जुलाई 2011

mausam ke mijaajon sa..............

मौसम के मिजाजों सा परिवेश बदल लेते हैं
मन रंग बदलता  है     हम वेश बदल लेते हैं |

बचपन के    रिश्तों को       कैसे कोई ढूंढें ?
हम,! उम्र बदलते हैं ,वो देश बदल लेते हैं |

हम में , उनमें यारों ,    इतना ही अंतर है
हम मूल बदलते हैं,  वो शेष  बदल लेते हैं |

संकेत की दुनिया में ,     कोई हेरा-फेरी है
वरना कैसे ये लोग   सन्देश बदल लेते हैं ?

मुझे कैद उम्र भर की,और तुमको सजा-ए-मौत
आओ ! मेरे भाई               आदेश बदल लेते हैं ||

                                                 ................ पवन श्रीवास्तव  

   

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

tapish itni.........

तपिश इतनी कि गल सकता है कोई 
किसी सांचे में  ढल सकता    है  कोई.

जहां         राहें फिसलती जा रही हों
वहां कब तक संभल सकता है कोई 

किसी पर भी यकीं होता नहीं है
बताशे से बहल सकता है कोई .

किसी काँधे पे कोई सर लगा कर
सरे- बाज़ार छल सकता है कोई.

अभी इन चुप्पियों को छेडिये मत
कि  छूते ही उबल सकता है कोई

ये मत समझो कि अब कुछ भी नहीं है
अंधेरों से निकल  सकता         है कोई

जरा रुक कर हवाओं को सदा दो
तुम्हारे साथ चल सकता है कोई

:"पवन" की आँच बढती जा रही है
अब उसके साथ जल सकता है कोई ||

                                              .........पवन श्रीवास्तव     

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

bhojpuri ghazal

कुछ न सोचनी कि, के ,केकर ,का ले गइल
ओहिजे गइनी         जहाँ  रास्ता ले गइल !!

केहू रोकल ना टोकल   त      पागल हवा
हमरा  सपना के सेनुर       उड़ा ले गइल  !!

हम करेजा में   जे कुछ        लुकवले रहीं  
केहू धीरे से    आ के         चोरा ले गइल  !!

एक पल  एक छिन  के      भुलौना सफ़र
रउया  देखनी    कहाँ से कहाँ     ले गइल !!

उ  त  बुरबक बना के   बुझा  ता   "पवन"    
तहरा धोकरी के  सौंसे   दुआ     ले गइल !!
                                                      ........पवन श्रीवास्तव 

बुधवार, 6 जुलाई 2011

भोजपुरी ग़ज़ल

सुन्दर के त्यागीं मत 
भोगीं      भागीं मत.

सपना   छितरा  जाई
चिहा के    जागीं मत

दाग त लागिए गइल
धोईं ,       रान्गीं मत
 
आँख  बन्दूक  ना   ह
देखीं        दागीं  मत

जिनिगी       रेशम ह
पेन्हीं        टाँगी मत  

केहू      कुछ दीही ना 
ले   लीं    मांगीं मत  
                           ........पवन श्रीवास्तव
                              

शनिवार, 11 जून 2011

उंगलियाँ थाम के चलना

उंगलियाँ थाम के चलना  मैं भटक जाऊंगा 
तुम मुझे छोड़ के जाओगे तो थक जाऊंगा |

तुम जो यादों की किताबों के वरक पलटोगे 
एक लम्हे के लिए मैं भी     झलक जाऊंगा

घर भी जाना है कि अब और पिलाओ न मुझे
मैं नशे में हूँ           कहीं और बहक  जाऊंगा |

गम -ज़दा  पलकों में ठहरा हुआ पानी हूँ मैं
मुझको छेड़ोगे तो छूते ही   छलक जाऊंगा |

मैं 'पवन' हूँ  मुझे चन्दन का बदन छूने दो
तेरी खुशबू को लिए     दूर तलक जाउँगा || 

                                      ............पवन श्रीवास्तव



बुधवार, 8 जून 2011

कल्पना अस्वीकार से जनमती है...........

कल्पना !
अस्वीकार से जनमती है .
अस्वीकार !
उर्जा के ऊफान से निकलता है .
उर्जा और प्रज्ञा के व्याघात है विचार .
विचार ! कल्पना नहीं हैं |
कल्पनाएँ ,आदमी का साथ छोड़ने लगें
तो, प्रलय है |
फिर महा-प्रलय की कल्पना !
फिर, नई सृष्टि की कल्पना !
कल्पना !
तेरे बाँयें अनंत अर्ध-विराम हैं .
तेरे दाँयें कोई पूर्ण-विराम नहीं !!

                                         ....... पवन श्रीवास्तव


शुक्रवार, 3 जून 2011

मुश्किलों को सादगी की आँख से देखो,सुनो

मुश्किलों को सादगी की आँख से देखो ,सुनो
ज़िंदगी को ज़िंदगी की आँख से  देखो , सुनो

कोहसारों  में  छुपी है   रौशनी  ही  रौशनी
पत्थरों  को जौहरी की आँख  से देखो,सुनो

आपको अपना कोई चेहरा नज़र आ जाएगा
आइने को मुफलिसी की आँख से देखो,सुनो

हर ग़ज़ल अपनी भजन जैसी लगेगी आपको
शायरी को  बंदगी की  आँख से  देखो , सुनो

बस्तियों में  घर ही घर होंगे  तुम्हारे वास्ते
ये सफ़र आवारगी की आँख से  देखो,सुनो
                                                        .......पवन श्रीवास्तव
        

 

सोमवार, 30 मई 2011

सृजन-गीत -2

                                                              सृजन-गीत-२
                                                             ....................

यह नहीं समझो कि यह अवसान साधारण मरण है 
यह प्रसव-पीड़ा-तरंगों का घनीभूतीकरण है 
यह किसी कल्याण-कारी आत्म-मृत्यु का वरण है
यह सृजन की प्रक्रिया प्रारंभ का पहला चरण है !!

एक क्रम है, जो निरंतर चल रहा है,थम रहा है
एक भ्रम है जो निरंतर मिट रहा है ,बन रहा है
जो कभी सीपी कभी स्वाती के तन में पल रहा है
अंक में पीड़ा सहेजे रोज मोती जन रहा है

यह नहीं समझो कि यह अवसान अब अंतिम विलय है
अमर-सुर-संहार तारों पर खिची यह एक लय है
अनाहत आकाश पर संघात करता एक समय है
तमाछादित-सेज पर यह काल का अद्भुत प्रणय है

अब इसे स्वीकार करिए , श्रीष्टि का वरदान है ये,
प्रलय-झंझावत में भी एक लंबा ध्यान है ये
और रचेता के कुंवारे लक्ष्य का संधान है ये                                                     
फिर किसी के आगमन के पूर्व का प्रस्थान है ये !
अब इसे स्वीकार करिए..!...अब इसे स्वीकार करिए .... !!
                                                              .......पवन श्रीवास्तव

        
                                

शुक्रवार, 27 मई 2011

सृजन -गीत

 सागर में बसी धरती 
धरती से बन्धा सागर

              सागर में कोई सीपी
              नन्ही सी भली सीपी
              स्वाती की सखी सीपी
              सीपी. जो जने मोती 
       
                                                                         


आकाश में एक बादल
बादल का बदल पानी
पानी का घड़ा स्वाती
सीपी का सखा स्वाती
स्वाती जो बने मोती

                       एक प्यास है सीपी में
                       एक भूख है स्वाती में
                                  ये प्यास उबलती है
                                  वो भूख पिघलती है
                        ऋतु-चक्र-प्रवर्तन में
                        संयोग के एक क्षण में
ये प्यास उबलती है,वो भूख पिघलती है...........
                             
                          एक अग्नि-परिक्षा है
                          एक मौन-प्रतिक्षा  है
                                    सागर के समर्थन में 
                                    बादल के समर्पण में 
एक अग्नि-परिक्षा है,एक मौन प्रतिक्षा है ,,,,,,,,,,,,,


                          एक मोती को जनने में
                          एक मोती  सिरजने में  
                                      एक मौत मरी   सीपी
                                      जीवन से गया स्वाती
                 
                          सृजन है तो पीड़ा है
                          बिसर्जन की क्रीडा है |
अब कौन बने सीपी ?अब कौन जने मोती ?
अब कौन जिए स्वाती?अब कौन बने मोती?


                 अब कौन मरे ? अब कौन मरे ???




                                                                 







                                          

सोमवार, 23 मई 2011

दिन गुजरने का मसला तो हल हो गया 
तुम कथा हो गई मैं   गजल    हो गया 
मैनें रोजी कमाई      न रोजे रखे
देखते-देखते आज  कल हो गया 
एक पल को ठिठक सी गईं पुतलियाँ
कोई ऐसा मेरे साथ      छल हो गया

  इसके पहले कि मेरा    बयां दर्ज हो 
  फैसला भी हुआ और अमल हो गया  
                                            
                                                      .....पवन श्रीवास्तव .      


 

मंगलवार, 17 मई 2011

सिलसिले रह गए जान पहचान    तक
रोजो-शब् का सफ़र जिस्म से जान तक

 आपने ही फसीलों पे   शीशे  जड़े 
फूल बिखरे रहे छत से पादान तक

बेवजह अपनी राहें  खफा हो गईं
हम भटकते रहे घर से वीरान तक
बस्तिओं को कोई  बददुआ  लग गई
अब तो आता नहीं कोई मेहमान तक
मंजिलें और भी मुन्तजिर थीं   मगर
आदमी रुक गया जा के भगवान तक

 कोई ऐसी ग़जल आजमाओ पवन
गुनगुनाने लगें जानो-बेजान तक
                                   .......पवन श्रीवास्तव

 
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गुरुवार, 5 मई 2011

काश कभी हम तनहा होते !
तनहा होते आप न होते !!

                           तन्हाई से बातें होतीं
                           दिन होते ना रातें होतीं
                                
                           हमको किसी की याद ना आती
                           हम भी किसी को याद ना होते

काश कभी हम ...................!!

                           मैं और मेरा चेहरा होता
                           आइनों पे पहरा होता
                         
                           चेहरों के चुभते जंगल से
                           एक एक चरे पिन्हा होते

काश कभी हम ............................!!   

                           अपने आगे शीश झुकाते
                           पुण्य गिनाते पाप गिनाते

                           फिर मेरे पापों के नामे
                           पुण्य के खाते मिंह होते

काश कभी हम तनहा होते
तनहा होते आप ना होते !!
                                      
                                            ..........पवन श्रीवास्तव

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

भोजपुरी गीत

मन के बात कहे द  ए मितवा
मन के बात कहे द !.............!!

                           दुपहरिया में      रात  भइल बा       
                           मौसम से कुछ घात भइल बा
                             
                          खेत -बधार         सुखाइल जाता
             
                           अंगना में       बरसात भइल बा

भीतर झंझावात उठल बा
बाहर बांध ढहे द ........!

ए मितवा ! मन के बात कहे द ..........!!

                                 सबके हाल बेहाल भइल बा
                                  साँच उचारल काल  भइल    बा

                                   के        केकरा से   पूछे  जाए
                                   सउँसे शहर सवाल भइल बा 

मरण-दूत ललकार रहल बा
अमर -पिनाक गहे द .......!

ए मितवा  ! मन के बात  कहे द

ए मितवा  ! मन के बात कहे    द ............!! 
                                           
                                                                        .......पवन श्रीवास्तव                                                               

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

आशियाने की क़सम

आशियाने की क़सम
आबो-दाने की क़सम

झूठी  खाऊंगा     नहीं
मैं निभाने की क़सम

जिसपे कायम है खुदा
उस बहाने की क़सम

कोई   देता  ही    नहीं
दिल लगाने की क़सम 

आज   फिर   टूट   गई
फिर न आने की क़सम

जाइए  ले  के   मगर
लौट आने की क़सम

                                     .............पवन श्रीवास्तव
               





मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

जंगलों ने, नदी ने हवा ने ,चुपके चुपके कई जंग झेले
इनसे लड़ते झगड़ते ,जहाँ में ,आदमी रह गए हैं अकेले
   
पर -शिकश्ता परिंदे की नाई फरफराते  रहे हैं क़फ़स में
कोई पूछे तो हम क्या कहेंगे बस वही जिंदगी के झमेले

तेज-रफ्तारगी से उलझ कर ,अब तो सांसें उखड़ने लगी हैं
कोई आकर मेरी जिंदगी से मेरी बाक़ी बची उम्र ले ले

एक बाज़ी बची रह गई है इसलिए हम जिए जा रहे हैं
वर्ना मुझ पर मेरे दोस्तों ने एक से बढ़ के इक दाँव खेले

अपने जज्बों की सौगात ले क़र हम भी बाजार में आ गए थे
फिर समेटो पवन शामियाना अब उजड़ने लगे दिल के मेले

------- पवन श्रीवास्तव 



 
 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

आहटें फिर से आने लगी हैं

आहटें फिर से आने लगी हैं 
कोशिशें सुगबुगाने लगी हैं  

कोई आवाज देने लगा है
चुप्पियाँ गुनगुनाने लगी हैं

कोई हलचल है सागर के तल में
कश्तियाँ डगमगाने लगी हैं

आपको छू के गुजरी हवाएं
अब मुझे गुदगुदाने लगी हैं

देखना कोई आंधी उठेगी
चीटियाँ घर बनाने लगी हैं

मेरी आवारगी के तजुर्बे
पीढियां आजमाने लगी हैं

-----पवन श्रीवास्तव 

रविवार, 10 अप्रैल 2011

कत्ता

हर जगह बेखोफ होकर झूम सकती है,
 जिंदगी भर मौत को भी चूम सकती है
नवजवानों की तरह सोचा करो तो,
उम्र की सुई भी पीछे घूम सकती है.
---पवन श्रीवास्तव 

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

बहरूपिया-2

मैं देख रहा हूँ.....
मेरे चतुर्दिक
तेज़ बवंडर उठ रहे हैं
एक बहुरूपिया
मेरे नखाग्रों पर उभरता, इतराता
नाच रहा है
बांच रहा है अठारह अध्याय, सात सौ श्लोक
कभी शास्त्र, कभी लोक
मैं देख रहा हूँ....
मैं देख रहा हूँ
बहरूपिया वेश बदलते-बदलते थक गया है
पक गया है उसके चेहरे का गीला कच्चा रंग
अंग-अंग अभंग त्वचा का रोम-रोम
भष्म भभूत से ढक गया है
मैं देख रहा हूँ.....
मैं देख रहा हूँ
उसके रंग-बिरंगे मुखौटे बरगद की बरोहें थामे
कजरी-कजरी झूला झूल रहे हैं
दिगंत तक दौड़ लगा रहे हैं उसके गीत
मैं देख रहा हूँ.....
मैं देख रहा हूँ
असंख्य बाल-बहरूपिये
बरगद की ओर भागे चले आ रहे हैं
पेंग मारते मुखौटे आकाश में उड़ चलें हैं
मैं देख रहा हूँ.....
मैं देख रहा हूँ
अपनी धुरी पर चक की तरह नाचता बहरूपिया
धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रहा है
धीमी-धीमी विद्युत्-तरंगों की तरह मेरी शिराओं में चढ़ रहा है
गढ़ रहा है
फिर से एक नया आकाश
देखते-देखते
प्रलय की अद्भुत लय पर
नाच उठते हैं बेड़ियों में जकड़े मेरे पाँव
और फिर कभी न सोने के लिए
धीरे-धीरे जाग रहा है
मेरे भीतर
मेरा अपना गाँव.


बहुरुपिया

मैं देख रहा हूँ......
मेरे भीतर तेज़ बवंडर उठ रहे हैं
कोई बहुरूपिया मेरी ग्रंथियों के चौराहे पर खड़ा
हांक लगा रहा है
मेरी रगों में आकाश की तरह बह रहा है
जाने किस-किस भाषा में क्या-क्या कह रहा है
मैं देख रहा हूँ......
मैं देख रहा हूँ
बहरूपिया,
कभी योगी, कभी कामी
कभी भिक्षु, कभी स्वामी
कभी औघड़, अवधूत, मुक्तिदूत-बागी का
रूप धर रहा है
जाने क्या-क्या कर रहा है
मैं देख रहा हूँ.....
मैं देख रहा हूँ
बहरूपिया अपने पूरे रौ में है
हवा में लहराते सन की तरह सफ़ेद
उसके केश, उसकी दाढ़ी
पलकों के पालने में जुड्वें सूर्य सी लेटीं
उसकी पुतलियाँ
दसों दिशाओं पर ध्वज की तरह फहरातीं
उसकी भुजाओं के शीर्ष पर थिरकतीं उसकी उँगलियाँ
ब्रह्मांड का भूगोल उकेर रहीं हैं
मैं देख रहा हूँ......
मैं देख रहा हूँ
हवाएं उठाकर ले भाग रही हैं
उसके शब्दों की डोली
जो कुछ मेरे हिस्से का बच रहा है
मैं चुन रहा हूँ.....
मैं सुन रहा हूँ
लम्बे समय से चुप्पी की ऊब सह रहा हूँ
अब कह रहा हूँ.....
अब कह रहा हूँ