गुरुवार, 14 जुलाई 2011

tapish itni.........

तपिश इतनी कि गल सकता है कोई 
किसी सांचे में  ढल सकता    है  कोई.

जहां         राहें फिसलती जा रही हों
वहां कब तक संभल सकता है कोई 

किसी पर भी यकीं होता नहीं है
बताशे से बहल सकता है कोई .

किसी काँधे पे कोई सर लगा कर
सरे- बाज़ार छल सकता है कोई.

अभी इन चुप्पियों को छेडिये मत
कि  छूते ही उबल सकता है कोई

ये मत समझो कि अब कुछ भी नहीं है
अंधेरों से निकल  सकता         है कोई

जरा रुक कर हवाओं को सदा दो
तुम्हारे साथ चल सकता है कोई

:"पवन" की आँच बढती जा रही है
अब उसके साथ जल सकता है कोई ||

                                              .........पवन श्रीवास्तव     

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