मंगलवार, 17 मई 2011

सिलसिले रह गए जान पहचान    तक
रोजो-शब् का सफ़र जिस्म से जान तक

 आपने ही फसीलों पे   शीशे  जड़े 
फूल बिखरे रहे छत से पादान तक

बेवजह अपनी राहें  खफा हो गईं
हम भटकते रहे घर से वीरान तक
बस्तिओं को कोई  बददुआ  लग गई
अब तो आता नहीं कोई मेहमान तक
मंजिलें और भी मुन्तजिर थीं   मगर
आदमी रुक गया जा के भगवान तक

 कोई ऐसी ग़जल आजमाओ पवन
गुनगुनाने लगें जानो-बेजान तक
                                   .......पवन श्रीवास्तव

 
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1 टिप्पणी:

  1. मंजिलें और भी मुन्तजिर थीं मगर
    आदमी रुक गया जा के भगवान तक.......क्या बात है पवन जी! बहुत खूब...हर शेर लाजवाब... अच्छी और कामयाब ग़ज़ल.

    ---देवेंद्र गौतम

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