मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

जंगलों ने, नदी ने हवा ने ,चुपके चुपके कई जंग झेले
इनसे लड़ते झगड़ते ,जहाँ में ,आदमी रह गए हैं अकेले
   
पर -शिकश्ता परिंदे की नाई फरफराते  रहे हैं क़फ़स में
कोई पूछे तो हम क्या कहेंगे बस वही जिंदगी के झमेले

तेज-रफ्तारगी से उलझ कर ,अब तो सांसें उखड़ने लगी हैं
कोई आकर मेरी जिंदगी से मेरी बाक़ी बची उम्र ले ले

एक बाज़ी बची रह गई है इसलिए हम जिए जा रहे हैं
वर्ना मुझ पर मेरे दोस्तों ने एक से बढ़ के इक दाँव खेले

अपने जज्बों की सौगात ले क़र हम भी बाजार में आ गए थे
फिर समेटो पवन शामियाना अब उजड़ने लगे दिल के मेले

------- पवन श्रीवास्तव 



 
 

1 टिप्पणी:

  1. एक बाज़ी बची रह गई है इसलिए हम जिए जा रहे हैं
    वर्ना मुझ पर मेरे दोस्तों ने एक से बढ़ के इक दाँव खेले

    ...लंबी बह्र में कामयाब ग़ज़ल...बहुत खूब!
    ----देवेंद्र गौतम

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